एक लड़की से किसी ने पूछा


तुम एक घर छोड़कर दूसरे घर में जाती हो, भला क्या बदलता है।

वह लड़की खिलखिला दी, फिर हौले से मुस्कराई, नजरें नीची करके बोली- 


"सच कह रहे हैं आप एक घर से दूसरे घर जाती हूं, पर आगे का सवाल थोड़ा गंभीर है, आपने मुझसे पूछा भला क्या बदलता है, 

मेरे लिए यह याद रखना मुश्किल है कि क्या नहीं बदलता है ? 


मेरा सामान, मेरा कमरा,  मेरी पसंद, मेरा गुस्सा, मेरी झुंझलाहट 

मेरा डर, मेरे आँसू, मेरे जज्बात, मेरी पहचान, मेरी आवाज, मेरी बातें, मेरे दिन, मेरी रातें, मेरी मुस्कान, मेरी पोशाक सब कुछ 

हां सब कुछ तो बदल जाते हैं। 


इतना ही नहीं  इनके साथ मेरे अधिकार, मेरे कर्तव्यों में बदल जाते हैं।

आपको यकीन नहीं हो रहा है न, चलिए कुछेक उदाहरण के साथ बताती हूं, अपनी प्रतिक्रिया से अवगत करवाती हूं। 


मसलन पहले सुबह देर से उठना, मेरा अधिकार था तब देर भी घरवालों को जल्दी ही लगती थी। अब जल्दी उठना मेरा कर्त्तव्य है और वह जल्दी भी अक्सर इन घरवालों को देर सी ही लगती है। 


जैसे कि पहले पापा से  महंगे उपहार न मिलने पर रो पड़ती थी, चीखती थी चिल्लाती थी,  

मां के ऊपर इंकार कर देने का इल्ज़ाम  लगाती थी, अब पापा उपहार भेजते हैं तो उन्हें स्वीकार करने में हाथ कांपते हैं, बरबस ही मोबाइल कानों से सटकर होठों से कहलवा लेता है- 

पापा इसकी क्या जरुरत थी, 

अभी पिछले महीने ही तो पैकेट भेजा था।  जरुर मां ने जिद की होगी, आप मां की बातों में मत आया करो।


पहले गम में दिल खोलकर रोती थी और खुशी में जी भरकर  हँसती थी, अब आँसू सहेजकर रखने पड़ते हैं और ठहाके लगाये, महीनों निकल जाते हैं। 


पहले सचमुच  स्वार्थी थी, बस खुद के लिए सोचती थी पर तब कोई इस उपमा से श्रृंगारित नहीं करता था, अब सबके लिए सोचने में खुद को ही भूल जाती हूं फिर भी मतलबी नाम के गहने से सजा दी जाती हूं। 


पहले खुद गलती करके डांट भाई-बहनों को खिलवा देती थी, अब भाई बहनों  की गलती पर खुद प्रायः मोहरा बनती हूं। 


पहले मां का बनाये खाने में हजार नुक्स निकालती थी, अब उस स्वाद के लिए जीभ तरसती है, 

जिस जीभ को पहले पकवान की लत थी वह अब मात्र अन्य जीभ तक स्वादिष्ट पकवान पहुंचाने का माध्यम भर है। 


मेरा एक घर मायका, एक घर ससुराल पर दोनों घरों में होता जमीन-आसमान का अंतराल, इसे संतुलित करने में, या यूं कहूं कि मायके की इज्ज़त ससुराल में एवं ससुराल का सम्मान मायके में बनाये रखने की जद्दोजहद में करना पड़ता है खुद से ही विवाद। 


इतना काफी है कि और बताऊं, आप कहेंगे- "तुम आज़ की कामकाजी नारी हो, गए वे जमाने जब यह सब होता था।"

चलिए मैं आपको इसके बारे में भी बता देती हूं, मैं आज़ की नारी हूं, कामकाजी हूं, घर संभालती हूं कमाती हूं मगर मेरी ही कमाई पर अधिकार कहां पाती हूं ?


फिर भी आप यदि कहते हैं कि घर ही तो बदला है और क्या बदला है ? 

तो मैं आपके इस सवाल को बदलती हूं और पूछती हूं- 

आपका तो घर भी नहीं बदला फिर क्यों कहते हो शादी के बाद सब कुछ बदल गया।"

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